भारतीय जातिवाद और अमेरिकी नस्लवाद क्या है ?
अमेरिका में नस्लवाद
नस्लवाद एक अवधारणा या सिद्धान्त है जिसमे एक नस्ल दूसरे नस्ल की तुलना में खुद को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को निम्नतर मानता है। उदाहरण के लिए अंतरराष्ट्रीय अटलांटिक दास व्यापार, जर्मनी, इटली सहित यूरोप में यहूदी नरसंहार और अफ्रीका में रंगभेद के पीछे नस्लवाद ही मुख्य प्रेरणा रही है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विस्तार में भी यही नस्लवादी अवधारणा एक कारण रही है।
अमेरिका में नस्लवाद यूरोपीय उपनिवेशवाद के साथ वहाँ पहुँची। अर्थात आज से लगभग 300-400 साल के आसपास में यह ज्यादा विकसित हुई।
इसी आधार पर वहाँ काले लोगों पर तमाम तरह की प्रताड़ना,भेदभाव और नस्लीय हिंसा सैकड़ों सालों से अब तक चली आ रही है। अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड का एक गोरे पुलिस द्वारा हत्या इसी कड़ी का एक उदाहरण है।
भारत में जातिवाद
जातिवाद एक जन्म आधारित अवधारणा या सिद्धान्त है जिसमे एक जाति विशेष खुद को दूसरी जाती से श्रेष्ठ मानता है और दूसरी जाति को निम्नतर मानता है।
भारतीय जातिवाद की शुरूआत हज़ारों वर्ष पुरानी है। साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार वैदिक काल (1500 – 600 ई.पु.) से इसकी शुरूआत वर्ण-व्यवस्था के रूप में शुरू हुई जो कालांतर में जातिवाद के रूप में विकसित हुई। इस अमानवीय जाति व्यवस्था के कारण हज़ारों सालों से बहुसंख्यक शूद्रों (वर्तमान में अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) पर भेदभाव जारी है।
हत्या,बलात्कार,अपहरण,अपमान,प्रताड़ना, मारपीट, छुआछुत आज भी हम प्रायः मीडिया रिपोर्टो में सुनते रहतें है।
जातिवाद नस्लवाद से भी ज्यादा वीभत्स क्यों है ?
भारतीय जातिवाद अमेरिकी नस्लवाद से ज्यादा वीभत्स होने के कई कारण है। इसे समझने के लिए हम धार्मिक मान्यता , समाजिक स्वीकृति, राष्ट्रीय एकता और भाईचारा के संदर्भ में समझने का प्रयास करते हैं।
1.धार्मिक मान्यता
2.सामाजिक स्वीकृति
3.राष्ट्रीय एकता और भाईचारा
पहला, अमेरिका में नस्लीय हिंसा की जड़ धार्मिक या धार्मिक ग्रंथ नही है। सीधे शब्दों में कहे तो नस्लवाद को किसी प्रकार की धार्मिक मान्यता प्राप्त नही है। इसके विपरीत भारत में वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक मान्यता प्राप्त है। धार्मिक साहित्यों, ग्रंथो, धार्मिक विचारकों द्वारा वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय कृत्य कहकर उचित ठहराया गया है। इसमें सबसे खतरनाक बात यह कि जातिवाद को जन्म आधारित व्यवस्था बनाया गया है जो कभी न समाप्त होनेवाले भेदभाव की और इशारा करता है ?
दूसरा, जातिवाद वीभत्स इसीलिए भी है क्योंकि इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। दूसरी जातियों से विवाह वर्जना, खान-पान निषेध सहित कई सामाजिक मान्यताओं के आधार पर आज भी जाति आधारित समाज जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। उदाहरण के लिए जातीय सामाजिक स्वीकृति इतना हावी है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस,जर्मनी, कनाडा जैसे विकसित समाज वाले देशों में भी पढ़े-लिखे शिक्षित भारतीय वहाँ जातिवादी संगठन बनाकर जातिवाद को बढ़ावा दे रहें हैं।
तीसरा,जातिवाद वीभत्स इसीलिए भी है क्योंकि यह देश के राष्ट्रीय एकता और भाईचारा को बाधित करता है। वर्ण व्यवस्था और उसके उपरांत जातिवाद के कारण भारत मे कई विदेशी शक्तियों और हमलावरों को पैर जमाने का आसान मौका दिया। सिकंदर का हमला हो, ईरानी-पारसी हमला हो या ,यवन इंडो-ग्रीक, शक, कुषाण, हूण, अरब ,तुर्क ,मुग़ल या ब्रिटिश हमला हो, इन सभी को देश में सत्ता प्राप्त करने में भारतीय विखंडित समाज ने एक अशुभ मौका दिया है।
हालाँकि हज़ारो साल की तुलना में भारतीय समाज में एकता और भाईचारा जरूर बढ़ा है। लेकिन यह एकता या तो जाति के नाम पर है या फिर धर्म के नाम पर है। इसी कारण से जाति और धर्म आधारित राजनीति ने देश की एकता और अखंडता के सामने एक बड़ी चुनौती पेश किया है। ऐसी व्यवस्था तबतक मजबूत रह सकता है जबतक देश में हर वर्ग,जाती,धर्म के लोगो को शिक्षा, रोजगार, प्रशासन, न्यायालय, मीडिया और अन्य क्षेत्रों में समान मौका नही मिलता है। परन्तु देश मे बढ़ रहे निजीकरण से समाज मे समानता स्थापित करने के मार्ग में कितनी बड़ी बाधा बन सकती है यह आनेवाले वर्षों में ही पता चल सकता है।